शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
--डा श्याम गुप्त...के दो पद ...
कन्हैया उझकि-उझकि निरखै ।
स्वर्ण खचित पलना,चित चितवत,केहि विधि प्रिय दरसै ।
जंह पौढ़ी वृषभानु लली , प्रभु दरसन कौं तरसै ।
पलक -पाँवरे मुंदे सखी के , नैन -कमल थरकैं ।
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों ,फर फर फर फरकै ।
तीन लोक दरसन को तरसे, सो दरसन तरसै ।
ये तो नैना बंद किये क्यों , कान्हा बैननि परखै ।
अचरज एक भयो ताही छिन , बरसानौ सरसै ।
खोली दिए दृग , भानु-लली , मिलि नैन -नैन हरसें ।
दृष्टि हीन माया ,लखि दृष्टा , दृष्टि खोलि निरखै ।
बिनु दृष्टा के दर्श ' श्याम' कब जगत दीठि बरसै ॥
को तुम कौन कहाँ ते आई ।
पहली बेरि मिली हो गोरी ,का ब्रज कबहूँ न आई ।
बरसानो है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई ।
सुनी कथा दधि -माखन चोरी , गोपिन संग ढिठाई ।
हिलि-मिलि चलि दधि-माखन खैयें, तुमरो कछु न चुराई।
मन ही मन मुसुकाय किशोरी, कान्हा की चतुराई ।
चंचल चपल चतुर बतियाँ सुनि राधा मन भरमाई ।
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली, भूलि गयी ठकुराई ।
हरि-हरि प्रिया, मनुज लीला लखि,सुर नर मुनि हरसाई ॥
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