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शनिवार, 16 अप्रैल 2011

--डा श्याम गुप्त...के दो पद ...


कन्हैया उझकि-उझकि निरखै  
स्वर्ण खचित पलना,चित चितवत,केहि विधि प्रिय दरसै  
जंह पौढ़ी वृषभानु लली , प्रभु दरसन कौं तरसै  
पलक -पाँवरे मुंदे सखी के , नैन -कमल थरकैं  
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों ,फर फर फर फरकै  
तीन लोक दरसन को तरसे, सो दरसन तरसै  
ये तो नैना बंद किये क्यों , कान्हा बैननि परखै  
अचरज एक भयो ताही छिन , बरसानौ सरसै  
खोली दिए दृग , भानु-लली , मिलि नैन -नैन हरसें  
दृष्टि हीन माया ,लखि दृष्टा , दृष्टि खोलि निरखै  
बिनु दृष्टा के दर्श ' श्याम' कब जगत दीठि बरसै  

को तुम कौन कहाँ ते आई  
पहली बेरि मिली हो गोरी ,का ब्रज कबहूँ  आई  
बरसानो है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई  
सुनी कथा दधि -माखन चोरी , गोपिन संग ढिठाई  
हिलि-मिलि चलि दधि-माखन खैयें, तुमरो कछु  चुराई। 
मन ही मन मुसुकाय किशोरी, कान्हा की चतुराई  
चंचल चपल चतुर बतियाँ सुनि राधा मन भरमाई  
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली, भूलि गयी ठकुराई  
हरि-हरि प्रिया, मनुज लीला लखि,सुर नर मुनि हरसाई