बुधवार, 28 सितंबर 2011
सान्निध्य सेतु: शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माँ दुर्गा
सान्निध्य सेतु: शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माँ दुर्गा: अश्विन मास के शुक्ल पक्ष के शुरुआती नौ दिन भारतीय संस्कृति में नवरात्र के नाम से शक्ति की पूजा के लिए निर्धारित है इन दिनों शक्ति ...
रविवार, 11 सितंबर 2011
सान्निध्य: गत एक वर्ष में राष्ट्रूभाषा हिंदी ने क्या खोया क्य...
सान्निध्य: गत एक वर्ष में राष्ट्रूभाषा हिंदी ने क्या खोया क्य...: 14 सितम्बर हिन्दी दिवस है। आइये उस दिन को कुछ खास अंदाज़ में मनायें। संकल्प लें। हिन्दी की एक कविता लिखें, एक वाक्य लिखें, बच्...
शनिवार, 10 सितंबर 2011
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
तुम सृजन करो
तुम सृजन करो मैं हरित प्रीत शृंगार सजाऊँगा।
वसुन्धरा को धानी चूनर भी पहनाऊँगा।
देखे होंगे स्वप्न यथार्थ में जीने का है समय,
ग्रामोत्थान और हरित क्रांति की अलख जगाऊँगा।।
बढ़ते क़दम शहर की ओर रोकूँगा जड़वत हो।
ग्राम्य विकास का युवकों में संज्ञान अनवरत हो।
नई नई तकनीक उन्न्त कृषि कक्षायें हों।
साधन संसाधन जाने की कार्यशालायें हों।
कहाँ कसर है ग्राम्य चेतना शिविर लगाऊँगा।।
गोबर गेस, सौर ऊर्जा का हो समुचित उपयोग।
साझा चूल्हा, साझा खेती पर हों नए प्रयोग।
पर्यावरण सुरक्षा, सघन वन, पशुधन संवर्द्धन हो।
पंचायत के निर्णय मान्य हों, न कोई भूखा जन हो।
श्रम का हो सम्मान मैं ऐसी हवा चलाऊँगा।।
कृषिप्रधान है देश कृषि पर ध्यान रहे हरदम।
वर्षा पर नों निर्भर जल संग्रहण हो न कम।
उन्नत बीज खाद मिले बाजार यहीं विकसित हों।
चौपाल सजें आधुनिक कृषि पर चर्चायें भी नित हों।
अभिनव ग्राम बनें मैं ऐसी जुगत लगाऊँगा।।
तुम सृजन करों------
वसुन्धरा को धानी चूनर भी पहनाऊँगा।
देखे होंगे स्वप्न यथार्थ में जीने का है समय,
ग्रामोत्थान और हरित क्रांति की अलख जगाऊँगा।।
बढ़ते क़दम शहर की ओर रोकूँगा जड़वत हो।
ग्राम्य विकास का युवकों में संज्ञान अनवरत हो।
नई नई तकनीक उन्न्त कृषि कक्षायें हों।
साधन संसाधन जाने की कार्यशालायें हों।
कहाँ कसर है ग्राम्य चेतना शिविर लगाऊँगा।।
गोबर गेस, सौर ऊर्जा का हो समुचित उपयोग।
साझा चूल्हा, साझा खेती पर हों नए प्रयोग।
पर्यावरण सुरक्षा, सघन वन, पशुधन संवर्द्धन हो।
पंचायत के निर्णय मान्य हों, न कोई भूखा जन हो।
श्रम का हो सम्मान मैं ऐसी हवा चलाऊँगा।।
कृषिप्रधान है देश कृषि पर ध्यान रहे हरदम।
वर्षा पर नों निर्भर जल संग्रहण हो न कम।
उन्नत बीज खाद मिले बाजार यहीं विकसित हों।
चौपाल सजें आधुनिक कृषि पर चर्चायें भी नित हों।
अभिनव ग्राम बनें मैं ऐसी जुगत लगाऊँगा।।
तुम सृजन करों------
मंगलवार, 6 सितंबर 2011
नवगीत की पाठशाला: २५. यह शहर
नवगीत की पाठशाला: २५. यह शहर: तिनका तिनका जोड़ रहा इंसाँ यहाँ शाम-सहर आतंकी साये में पीता हालाहल यह शहर अनजानी सुख की चाहत संवेदनहीन ज़मीर इन्द्रहधनुषी अभिलाषाय...
रविवार, 4 सितंबर 2011
2 ग़ज़लें
1
करम कर तू ख़ुदा को रहमान लगता है।
कोई नहीं तिरा मिरा जो मिहरबान लगता है।
यही पैग़ाम गीता में हदीस में है पाया,
ग़ुमराह किया हुआ वो इंसान लगता है।
आदमी-आदमी की फ़ितरत मे क्यूँ है फ़र्क,
सबब इसका सोहबत-ओ-खानपान लगता है।
तिरी नज़र में क्यूँ है अपने पराये का शक़,
इक भी नहीं शख़्स जो अनजान लगता है।
उसने सबको एक ही तो दिया था चेहरा,
चेहरे पे चेहरा डाले क्यों शैतान लगता है।
कौनसी ग़लती हुई, इसे क्या नहीं दिया,
ख़ुदा इसीलिए हैराँ औ परीशान लगता है।
उसकी दी नैमत है अहले ज़िन्दगी 'आकुल',
जाने क्यूँ कुछ लोगों को इहसान लगता है।
2
दरख़्त धूप को साये में ढाल देता है।
मुसाफ़िर को रुकने का ख़याल देता है।
पत्तों की ताल हवा के सुरों झूमती,
शाखों पे परिन्दा आशियाँ डाल देता है।
पुरबार में देखो उसकी आशिक़ी का जल्वा
सब कुछ लुटा के यक मिसाल देता है।
मौसिमे ख़िज़ाँ में उसका बेख़ौफ़ वज़ूद,
फ़स्ले बहार आने की सूरते हाल देता है।
इंसान बस इतना करे तो है काफ़ी,
इक क़लम जमीं पे गर पाल देता है।
ऐ दरख़्त तेरी उम्रदराज़ हो 'आकुल',
तेरे दम पे मौसिम सदियाँ निकाल देता है।
पुरबार-फलों से लदा पेड़,
मौसिमे ख़िज़ाँ- पतझड़ की ऋतु
फ़स्ले बहार- बसंत ऋतु, सूरते हाल- ख़बर
क़लम- पेड़ की डाल,पौधा उम्रदराज- चिरायु
करम कर तू ख़ुदा को रहमान लगता है।
कोई नहीं तिरा मिरा जो मिहरबान लगता है।
यही पैग़ाम गीता में हदीस में है पाया,
ग़ुमराह किया हुआ वो इंसान लगता है।
आदमी-आदमी की फ़ितरत मे क्यूँ है फ़र्क,
सबब इसका सोहबत-ओ-खानपान लगता है।
तिरी नज़र में क्यूँ है अपने पराये का शक़,
इक भी नहीं शख़्स जो अनजान लगता है।
उसने सबको एक ही तो दिया था चेहरा,
चेहरे पे चेहरा डाले क्यों शैतान लगता है।
कौनसी ग़लती हुई, इसे क्या नहीं दिया,
ख़ुदा इसीलिए हैराँ औ परीशान लगता है।
उसकी दी नैमत है अहले ज़िन्दगी 'आकुल',
जाने क्यूँ कुछ लोगों को इहसान लगता है।
2
दरख़्त धूप को साये में ढाल देता है।
मुसाफ़िर को रुकने का ख़याल देता है।
पत्तों की ताल हवा के सुरों झूमती,
शाखों पे परिन्दा आशियाँ डाल देता है।
पुरबार में देखो उसकी आशिक़ी का जल्वा
सब कुछ लुटा के यक मिसाल देता है।
मौसिमे ख़िज़ाँ में उसका बेख़ौफ़ वज़ूद,
फ़स्ले बहार आने की सूरते हाल देता है।
इंसान बस इतना करे तो है काफ़ी,
इक क़लम जमीं पे गर पाल देता है।
ऐ दरख़्त तेरी उम्रदराज़ हो 'आकुल',
तेरे दम पे मौसिम सदियाँ निकाल देता है।
पुरबार-फलों से लदा पेड़,
मौसिमे ख़िज़ाँ- पतझड़ की ऋतु
फ़स्ले बहार- बसंत ऋतु, सूरते हाल- ख़बर
क़लम- पेड़ की डाल,पौधा उम्रदराज- चिरायु
शनिवार, 3 सितंबर 2011
'आकुल' को 'साहित्य श्री' सम्मानोपाधि#links
गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' को राष्ट्रवीर महाराज सुहेलदेव ट्रस्ट, सिहोरा, जबलपुर म0प्र0 द्वारा#links
सान्निध्य सेतु: 'दृष्टिकोण' ने दूसरे वर्ष में प्रवेश किया। पाँचव...
सान्निध्य सेतु: 'दृष्टिकोण' ने दूसरे वर्ष में प्रवेश किया। पाँचव...: कहानी दर्द की मैं ज़िन्दगी से क्या कहता।
यह दर्द उसने दिया है उसी से क्या कहता।
तमाम शहर में झूठों का राज़ था ‘अख्तर’,
मैं अपने ग़म क...
यह दर्द उसने दिया है उसी से क्या कहता।
तमाम शहर में झूठों का राज़ था ‘अख्तर’,
मैं अपने ग़म क...
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