शुक्रवार, 28 जनवरी 2011
वेतन दिवस (पुरस्कृत हास्य-व्यंग्य)
कल रात को मेरा अपनी एक मात्र आदरणीय श्रीमतीजी से बिना कारण के उसके ही कर कमलों द्वारा स्वचालित विवाद हो गया और उसने अपने निजी संविधान में आंशिक संशोधन करके मुझ पर अमेरिका की तरह वीटो लगाते हुए अल्टीमेटम दे डाला कि मैं उससे कभी भी बात नहीं करूं। श्रीमतीजी का पारम्परिक रौद्र रूप देखकर मैंने अपनी स्थिति पर दृष्टिपात किया तो पाया कि मुझसे सत्ता छीन ली गई है और मैं अपदस्थ हो गया हूँ। मैंने भी आज्ञाकारी पति होने का प्रमाण देते हुए बिना कारण जाने उसकी बात का पालन करने की ठान ली और मौन व्रत ले लिया। अगले दिन सुबह होते ही मैं तैयार होकर हनुमान चालीसा पढ़ते हुए, माननीया धर्मपत्नी द्वारा रचित पारिवारिक संविधान की धारा चार सौ बीस उपधारा आठ सौ अस्सी के अंतर्गत, शोक सभा की तरह शांत एवं सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाते हुए न बोलने वाले संकल्प का स्मरण करके, चुपचाप घर से निकलकर ऑफिस के लिए कूच कर गया। जब मैं ऑफिस पहुंचा तो चपरासी ने दोनों हाथों कि उंगलियों को गिनते हुए बताया कि आपके घर से पच्चीस बार फोन आया था। मेमसाहब कह रहीं थीं कि जैसे ही साहब आएं तुरन्त घर फोन करने को कहना। साहब आप सचमुच कितने किस्मत वाले हैं। मेमसाहब आपका कितना ध्यान रखतीं हैं। ऊपर वाला आप जैसी मेमसाहब सबको दे। चपरासी की यह बात मुझे व्यंग्य बाण सी चुभ रही थी क्योंकि कल रात को ही तो मुझे बात न करने का अल्टीमेटम मिला था। सोचते-सोचते मैं जैसे ही सीट पर बैठा था कि घंटी बजी और मैं समझ गया कि यह निश्चित ही श्रीमतीजी का फोन होगा क्योंकि मेरे फोन की पॉलीफोनिक रिंगटोन मोनो रिंगटोन जैसी लग रही थी। मैंने जैसे ही फोन उठाया श्रीमतीजी का बनावटी मधुर स्वर सुनाई दिया। क्योंजी, मैं आपके लिए नाश्ता बना रही थी और आप चुपचाप ही बिना बताए ऑफिस चले गए जैसे मैं आपकी कुछ लगती नहीं हूँ। देखो मुझे तुम्हारी कितनी चिन्ता रहती है। पता है अभी मुहल्ले में लोग चर्चा कर रहे थे कि एक पागल सा आदमी बस से टकराकर स्वर्ग सिधार गया। मुझे लगा कि कहीं तुम तो नहीं थे। मैं तो घबरा गई थी। भगवान का लाख.लाख शुक्र है कि मेरा सुहाग फिलहाल अभी तो सुरक्षित है। अब मैं कम से कम एक करवा चौथ का व्रत और रख सकूंगी। देखो जी मैं कह देती हूँ कि आज से घर के बाहर कहीं भी जाओ तो मुझे बताकर ही जाया करो। अच्छा यह बताओ। आज लन्च के खाने में तुम्हारे लिए क्या बनाऊं ? मैंने कहा कॉपीराइट (सर्वाधिकार सुरक्षित) तो तुम्हारे पास ही है। मैं तो मात्र तुम्हारी हिटलरी सेना का अंतिम सिपाही हूँ जो सारी सेना के परास्त हो जाने पर स्वयं ही बिना लड़ाई लड़े पराजित घोषित हो जाता है। श्रीमतीजी बोलीं, आज आप कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। वह अनवरत कथावाचक सी बोलती रही और मैं श्रोता सा सुनता रहा। कुछ देर बात श्रीमतीजी स्वयं ही बोलीं आप फोन पकडे-पकडे थक गए होगे इसलिए अब रखती हूँ। मुझे भी देर हो रही है। तुम्हारी पसन्द का भोजन भी बनाना है। वैसे भी खीर, पूडी, हलुआ वगैरह बनाने में समय लगता है कहकर उसने फोन रख दिया।मैं श्रीमतीजी की शकुनि चालों को समझ नहीं पाया कि मात्र बारह घंटे में इतना बडा परिवर्तन कैसे हो गया। स्वयं ही युद्ध की घोषणा करती है और स्वयं ही शांति समझौता करती है। सोचते.सोचते मैं अपने कार्य में व्यस्त हो गया। मेरे कार्य की एकाग्रता को भंग करते हुए श्रीमतीजी ने फोन किया और कहा कि लन्च हुए पन्द्रह मिनिट हो चुके हैं और आप अभी तक घर नहीं आए। मुझे बहुत जोर की भूख लगी है, तुम्हें खिलाए बगैर खा भी नहीं सकती। श्रीमतीजी की इस प्रकार असीम कृपा और विशेष स्नेह का कारण मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने दिमाग पर जोर डालना ठीक नहीं समझा क्योंकि मुझे तो खीर, पूडी और हलुआ खाने से मतलब था। इसके पीछे श्रीमतीजी का उद्देश्य चाहे जो भी हो। मन में ऐसा भाव लिए मैं घर की ओर चल दिया। आज श्रीमतीजी घर पहुंचने के पहले ही घर के बाहर मेरी प्रतीक्षा करती हुई ऐसी व्याकुल सी लग रहीं थीं जैसे मानों एक दुल्हन अपने दरवाजे पर बारात आने की प्रतीक्षा करती है। घर पहुंचते ही श्रीमतीजी तुरन्त बोलीं कितनी देर कर दी आपने, मेरे तो भूख के मारे प्राण ही निकले जा रहे हैं। घर में प्रवेश करते ही व्यंजनों की सुगंध ने मेरी भूख और बढ़ा दी। श्रीमतीजी ने डायनिंग टेबिल पर भोजन लगाया ही था कि दुर्भाग्य से विद्युत विभाग की कृपा हुई और पंखा बन्द हो गया। लेकिन विद्युत विभाग के दुर्भाग्य में ही मेरा सौभाग्य था क्योंकि श्रीमतीजी अपने बेशकीमती साडी के पल्लू से वायुदेव को चिढ़ाते हुए मेरी हवा करती रहीं और मैं प्रेमपूर्वक भोजन करता रहा। मेरे भोजन करने की नियंत्रित गति सीमा को देखकर श्रीमतीजी ने कहा। प्लीज, जल्दी खाइए न मुझे बहुत भूख लगी है, जब आप खा लेंगे तब ही मैं खाऊंगी। भोजन करके मैं पुनः ऑफिस के लिए रवाना हुआ तो श्रीमतीजी मुझे द्वार तक छोड़ने आईं और अंग्रेजों का अनुसरण करते हुए पहली बार बाय-बाय डार्लिंग कहा और बोलीं आज ऑफिस से जल्दी घर आ जाना। मैं तुम्हारे वगैर एक पल भी नहीं रह सकती। मैंने गूंगे की तरह हाँ की मुद्रा में अपने सिर को हिलाया और आगे बढ़ गया।ऑफिस में कार्य की व्यस्तता के कारण समय का पता ही नहीं चला कि चार कब बज गया। वह भी पता नहीं चलता यदि श्रीमतीजी फोन नहीं करतीं कि चार बज गया है। छुट्टी होने में अभी एक घंटा बाकी है। आज तो मेरी खातिर जल्दी घर आ जाइए, मैं जब तक चाय बनाती हूँ। घर का मुखिया होते हुए भी श्रीमतीजी की बात का पालन करने को मैं उतना ही मजबूर था जितना कि मनमोहन सिंह श्रीमती सोनिया गांधी की बात का पालन करने को मजबूर हैं। मैं तो अपनी श्रीमतीजी के लिए वह टी० वी० हूँ जिसका पावर सप्लाई वाला ऑन.ऑफ स्विच खराब है। टी० वी० केवल रिमोट से ही कार्य करता है और वह रिमोट आदरणीय श्रीमतीजी के पास है। मैं आदेश का पालन करते हुए घर को रवाना हुआ। द्वार पर पहुंचते ही मैंने देखा कि श्रीमतीजी की आँखे बिना पलक झपके ठीक उसी तरह मेरी राह देख रही थीं जैसे सबरी ने भगवान राम की राह देखी थी। मुझे देखते ही वह क्लोजअप टूथपेस्ट के विज्ञापन की सी मुस्कान बिखेरकर मुझ पर स्नेह वर्षा करते हुए शब्दों के फूल चढ़ाने लगी। इस प्रकार स्नेह वर्षा से मैं जितना प्रसन्न था मन ही मन उतना आशंकित भी था क्योंकि मुझे लगता है कि पिछली सात पीढी तक हमारे खानदान में कोई भी इतना प्रसन्न नहीं रहा होगा। ऐसे में मेरा आशंकित होना सही था। घर में प्रवेश करते ही श्रीमतीजी बोलीं आज दूध वाले का, अखबार वाले का, राशन वाले का हिसाब करना है। कल बच्चों की फीस जमा करना है। टेलीफोन का बिल जमा करना है। आज तो महीने की पहली तारीख है आपको वेतन मिला होगा। लाइए मैं संभालकर रख देती हूँ। कहकर श्रीमतीजी ने मासिक वेतन छीनकर मुझे सत्ताविहीन सा कर दिया। श्रीमतीजी के इन शब्दों को सुनकर उसकी स्नेह वर्षा का राज मेरी समझ में आ गया था कि आज जो वेतन मिला है यह उसे हड़पने की रणनीति थी। वरना बारह घंटे पहले हुआ युद्ध, शांति समझौते में कैसे परिवर्तित हो गया। मैं एक बार फिर चिड़िया के बच्चे की तरह धीरे-धीरे महीने भर में पंख तैयार होते ही उड़ना सीखूंगा और फिर एक माह पूरा होने पर श्रीमतीजी रूपी बहेलिए के जाल में वेतन दिवस वाले दिन पंख काटकर फिर छला जाऊंगा।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें