गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
महंगाई की मार
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
भाव दाल का साठ रूपैया।
कोई दाल अस्सी की भैया।।
सब्जी हो गई महंगी कितनी,
चटनी घिस ले मेरी मैया।।
महंगाई से पहले गायब, चीजें होंय बजार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
दूध हो गया महंगा कितना।
फिर भी दूध में पानी उतना।।
दुर्लभ दर्शन देशी घी के,
वो भी शुद्ध नहीं है मिलना।।
चीनी महंगी चाय गोल है, दीनों के परिवार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
नई नई फैलीं बीमारी।
दवा हो गईं महंगी सारी।।
कर्जा ले-ले कर इलाज कर,
वरना मरे मात सुत नारी।।
लूटें वैद्य मरीजों को नित, सेवा और सत्कार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
महंगी शिक्षा और पढ़ाई।
कुटिया नहीं महकने पाई।।
दीन पिता की अनपढ़ बेटी,
मुश्किल से जाती है ब्याही।।
सच्ची खुशहाली न मिलेगी, शिक्षा के व्यापार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
कलयुग में किस्मत
राधा-सीता वृद्ध हो गई, झाडू-पौंछा करते-करते।।
नाम श्याम है सूरत गोरी,
लेकिन दिल के काले।
मुरलीधर है नाम मगर-
हैं पान बेचने वाले।।
मिले वनों में हमें राम जी, भेड़ चराते विचरण करते।
कलयुग में किस्मत के हमने, देखे अद्भुत रंग बिखरते।।
घास खोदती मिली केकई,
भीख मांगते हीरा-पन्ना।
रूपचंद की काली सूरत,
धनीराम जी बेचें गन्ना।।
राम-कृष्ण हो गये लफंगे, बेशर्माई से नहीं डरते।
कलयुग में किस्मत के हमने, देखे अद्भुत रंग बिखरते।।
कोठे पर बैठी सावित्री,
बेच रही है अपने तन को।
हरीशचंद्र नित झूठ बोल कर,
कमा रहे हैं खोटे धन को।।
नव यौवना बहाये आंसू, बीच बजरिया लुटते-पिटते।
कलयुग में किस्मत के हमने, देखे अद्भुत रंग बिखरते।।
मौसम लाया रंग बसंती
तन-मन हुआ बसंती बसका, अरू परिधान बसंती है।।
फूली-फली खेत में सरसों,
मंहकी गंध बसंती पवन में।
चिड़ियां उड़-उड़ लगी चहकने,
कोयलिया कूके बागन में।।
खेतों का रंग देख बसंती, हुआ किसान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
ओढ़ चुनरिया चली बसंती,
गोरी की हुई चाल बसंती।
आओगे कब पिया गांव को,
फोन से पूछे हाल बसंती।।
सुन गोरी के बैन बसंती, फौज-जवान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
प्यार का रंग बसंती ऐसा,
है सबकी मुस्कान बसंती।
आन बसंती शान बसंती,
और हुआ ईमान बसंती।।
रंगा बसंती रंग में जीवन, हर पहिचान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
ध्यान बसंती, ज्ञान बसंती,
मान और अरमान बसंती।
पाया जब सम्मान बसंती,
हिय जागा अभिमान बसंती।।
राम-कृष्ण, गौतम, नानक का, देश महान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
यू0 पी0, एम0 पी0, आंध्र, हिमाचल,
दिल्ली, राजस्थान बसंती।
गांव बसंती, शहर बसंती,
धरा और आसमान बसंती।।
केरल से कश्मीर तलक, ये हिन्दुस्तान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
वह आजादी पा न सकूँगा
और गरीबों की आजादी, लूली, लंगड़ी-बहरी है॥
आजादी की अन-गिन खुशियां, चाहे आज मनाये कोई।
लेकिन मैं तो,
गीत खुशी के गा न सकूँगा॥
जहाँ अधखिले फूल, धूल में खिलने से पहले मिल जाते।
जहाँ लोग नित फुटपाथों पर, जीवन के दिन-रात बिताते॥
अगर वहीं ऊँचे महलों में, सुरा-जाम छलकाये कोई।
लेकिन मैं तो,
मदिरा पीने जा न सकूँगा॥
भ्रष्ट कमाई की दौलत से, कोई बड़ा अमीर हो गया।
लेकिन आज दीन का जीवन, दुःखी दृगों का नीर हो गया॥
रोता देख अनुज को अग्रज, मन ही मन मुस्काये कोई।
लेकिन मैं तो,
ऐसा जीवन भा न सकूँगा॥
बडे़ लोग तो खा-पी गाकर, आजादी का पर्व मनाते ।
और दीन के दुःख दर्दों को वाक चतुरता से दफनाते॥
मरे हुओं की जै-जै करके, जिन्दों को दफनाये कोई|
लेकिन मैं तो,
वह आजादी पा न सकूँगा॥
मन का दीपक
तो कोटि दीप जलने से क्या|
हिय पाप बसा मुख प्यार रहा,
तो ऐसे भी मिलने से क्या||
अन्तर घुल चुका दीवाली का,
बाहर फीका उजियाला है।
देखा-देखी तो जन-गन-मन,
है सुखी मगर मन काला है।।
मन तो रोता है जीवन भर,
सोचो क्षण भर हँसने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
रोते तो देखे बहुतेरे,
हँसते बिरले देखे हमने।
सुख मिला तो हम अनजान हुये,
दुःख देख लगे रोने-भगने।।
ऐसे नर भार बने भू पर,
कुछ कर न सकें जीने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
जिसका मन टूट गया हो वो,
समझो तन से भी टूट गया।
तन-मन जब टूट गया जिसका,
उसका जग-जीवन छूट गया।।
जो फूल महकता नहीं कभी,
उसके मिथ्या खिलने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
क्या तुमने सोचा है कभी
क्या तुमने सोचा है कभी,
इस मिट्टी में जन्में औ’ पले,
इंसान हैं ऐसे भी लाखों,
जो भूखे ही सो जाते हैं।
शीत लहर में भी तरू नीचे,
फुटपाथों पर पड़े-पड़े,
भाग्य विधा ही समझ, जिन्दगी-
के दिन रात बिताते हैं।।
(2)
क्या तुमने सोचा है कभी,
अपने ही बच्चे जैसे वो,
भीख मांगते, घर-होटल में-
जे बर्तन धोया करते हैं।
मजबूरी में पढ़ने लिखने,
और खेलने के मृदु क्षण भी,
दुर्व्यसनों में पड़कर खोकर,
जीवन भर रोया करते हैं।।
(3)
क्या तुमने सोचा है कभी,
माँ बेटी और बहिन जैसी,
हैं असहाय बेचारी अबला,
बेचा करतीं जो निज तन को,
है दुर्भाग्य देश का अपना,
लाखों रावण दुशासन हैं,
अब तो राम-कृष्ण भी ऐसे,
हर लें तन-मन और वसन को।।
(4)
क्या तुमने सोचा है कभी,
जो श्रृद्धा भाव की थी मूरत,
है विकृत रूप उस नारी का,
चर्चा है घर बाजारों में।
ये कैसा घोर अनर्थ आज,
हैं घृणित अंग-प्यार दर्शन,
लाचार और आनंदित सब,
उलझे चैनल अखवारों में।।
(5)
क्या तुमने सोचा है कभी,
हम पापी और अधर्मी हैं,
सहते हैं अर्थ-अनर्थ सभी,
हम मूक बधिर अंधे बन कर।
भूले हम धर्म कर्म को ही,
माहौल प्रदूशित किया स्वयं,
बस एक समर्थ है प्रभु तू ही,
कुछ कर ‘गाफिल’ का दुःख सुनकर।।
अंतर्व्यथा
बाहर है मृत्यु का तांडव।
कौरव का गौरव विकसित है,
कुंठित हैं बेचारे पांडव।।
गीता के उपदेश सिसकते,
बंसी बजती नहीं श्याम की।
धूमिल है संस्कृति देश की,
मर्यादा रो रही राम की ।।
कितनी सीताओं के निश दिन,
होते हैं अपहरण यहाँ।
नहीं सुनिश्चित विजय राम की,
रावण का अब मरण कहाँ।।
आज कुँआरी बाला गर्भित,
हुआ देश का चरित पतन।
लाज द्रोपदी की न बचेगी,
हर कोई है दुशासन।।
मंदिर मस्जिद गुरूद्वारों में,
आना-जाना नाम का है।
हाला प्याला औ’ सुरबाला,
मतलब यही दाम का है।।
झोंपड़ियों से महलों तक,
घनघोर अँधेरा फैला है।
कुँठित हैं सब ज्ञान रश्मियां,
सूरज भी मटमैला है।।
आज जरूरत सारे जग को,
सच की राह दिखाने की।
ऊपर वाले कर कुछ ऐसा,
आये समझ जमाने की।।
जग-जननी नारी
नमन तुम्हें है बारंबार।
नाम काम सब धन्य तुम्हारे,
नग्न प्रदर्शन को धिक्कार।।
वंदनीय ओ रूप स्वरूपा,
विकृत हुआ क्यों तेरा चेहरा।
चल कर देखो जरा सुपथ पर,
जीवन होगा बड़ा सुनहरा।।
आज किसी भी नारी को,
अबला कहना है नादानी।
नारी है अब सबला उसकी,
शक्ति सबने पहिचानी।।
हिन्द देश का नारी ने,
दुनिया में मान बढ़ाया है।
नारी को सम्मान सदा दो,
सब उसकी ही माया है।।
नारी माँ है नारी बेटी,
बहिन और महतारी वो।
नारी सबकी रही चहेती,
नर से ज्यादा भारी वो।।
नारी जग जननी है, ये सच-
कैसे तुम झुठलाओगे।
नारी को दुःख देकर मित्रो,
सुखी नहीं रह पाओगे।।
होली के रंग
भौजी और देवर का, पैगाम रंगीला है।।
बृजधाम में होरी के, रंगों की छटा न्यारी;
राधा भी रंगी रंग में, घनश्याम रंगीला है।।
फागुन का महीना है, रंगीला है मौसम।
दिन रात रंगीले हैं, रंगों में है सरगम।।
रंगों में रंगी राधा, श्याम रंगे रंग में;
देवर और भौजी के, है प्यार के रंग में दम।।
होरी में दिवरिया पै, भौजी रंग डारि गई।
सूरत कूँ रंग औ‘ गुलाल सौं बिगारि गई।।
पीछे वारी होली की, कसकहू निकारि गई;
नैनन सौं बैनन कौ काम लै दुलारि गई।।
होरी में भौजी नै ऐसौ रंग डारयौ है।
तन कूँ बिगारयो जानै मन कूँ बिगारयो है।।
गालन गुलाल मलि, प्यार सौं दुलारयो है;
नैनन के बार सौं, बार बार मारयो है।।
गाफिल की सीख
जीवन यौवन चार दिन, नश्वर ये संसार ।
“गाफिल” हरि से हेत कर, गर चाहे उद्धार।।
छोड़ो धन की लालसा, रूके न धन इक ठौर।
तुझ पर है धन आज जो, कल्ल कहीं वो और।।
माया मन रूकते नहीं, चलते ये दिनरात।
तज माया को मन लगा, कुछ पल हरि के साथ।।
तन को धो उजला करें, दिन में सौ-सौ बार।
“गाफिल” मन को धो जरा, जामें सकल विकार।।
धोने से तन वसन को, चैन मिले इक बार ।
मन को धो कर देख ले, जीवन भर सुख यार।।
कुदरत करती काम निज, तू भी कर निज काम।
पर ईश्वर को भूल मत, जिसका जगत गुलाम।।
चोर भिखारी शाह या, बुरा भला शैतान।
सबके दाता हैं प्रभू, कर उनका गुणगान।।
दुःख के बदले दुःख मिले , सुख के बदले सुक्ख।
“गाफिल” अच्छे काम कर, मिट जायें सब दुक्ख।।
शिष्ट भक्त औ‘ संत जन, दुनिया में हैं चंद।
जिनके दर्शन मात्र से, मिले परम आनंद।।
जाते हैं सब स्वर्ग में, ‘गाफिल‘ मर कर लोग।
स्वीकारे कोई नहीं, नरकवास का योग।।
मन में लो संकल्प तुम, चलो सत्य की राह।
पूरी होगी एक दिन, जीवन की हर चाह।।
माया सुख-दुःख दारिणी, मोह विपति का जाल।
मद की अंधी चाल है, ‘गाफिल’ करो खयाल।।
बृज की होली
होली है बृज धाम की, दुनिया में मशहूर।
गली गली रंग रास हैं, रंग रसिया रंग हूर।।
बरसाने में रंग हैं, गोकुल में है रंग।
वृंदावन नंदगांव में, छिड़ी रंग की जंग।।
बृज में राधा श्याम के, रंगों की बरसात।
जमुना जल के रंग में, जीवन कौ रंग साथ।।
सभी सखी हैं राधिका, सभी सखा घनश्याम।
होली के रंग में रंग्यौ, पूरौ ही बृजधाम।।
श्याम रंग में तन रंग्यौ, मन राधा के रंग।
पंड़ा पी-पी मस्त हैं, भोले जी की भंग।।
पूरे ही बृजधाम में, रंग बरसे दिनरात।
“गाफिल” बृज के रंग की, रंग रंगीली बात।।
बृज -रज के रंग जो रंगे, बड़भागी वो लोग।
बृज-दर्शन के रंग सौं, मिट जायें सब रोग।।