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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

अंतर्व्यथा

अन्तर्मन में धधके ज्वाला,
बाहर है मृत्यु का तांडव।
कौरव का गौरव विकसित है,
कुंठित हैं बेचारे पांडव।।
गीता के उपदेश सिसकते,
बंसी बजती नहीं श्याम की।
धूमिल है संस्कृति देश की,
मर्यादा रो रही राम की ।।
कितनी सीताओं के निश दिन,
होते हैं अपहरण यहाँ।
नहीं सुनिश्चित विजय राम की,
रावण का अब मरण कहाँ।।
आज कुँआरी बाला गर्भित,
हुआ देश का चरित पतन।
लाज द्रोपदी की न बचेगी,
हर कोई है दुशासन।।
मंदिर मस्जिद गुरूद्वारों में,
आना-जाना नाम का है।
हाला प्याला औ’ सुरबाला,
मतलब यही दाम का है।।
झोंपड़ियों से महलों तक,
घनघोर अँधेरा फैला है।
कुँठित हैं सब ज्ञान रश्मियां,
सूरज भी मटमैला है।।
आज जरूरत सारे जग को,
सच की राह दिखाने की।
ऊपर वाले कर कुछ ऐसा,
आये समझ जमाने की।।

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