(1)
क्या तुमने सोचा है कभी,
इस मिट्टी में जन्में औ’ पले,
इंसान हैं ऐसे भी लाखों,
जो भूखे ही सो जाते हैं।
शीत लहर में भी तरू नीचे,
फुटपाथों पर पड़े-पड़े,
भाग्य विधा ही समझ, जिन्दगी-
के दिन रात बिताते हैं।।
(2)
क्या तुमने सोचा है कभी,
अपने ही बच्चे जैसे वो,
भीख मांगते, घर-होटल में-
जे बर्तन धोया करते हैं।
मजबूरी में पढ़ने लिखने,
और खेलने के मृदु क्षण भी,
दुर्व्यसनों में पड़कर खोकर,
जीवन भर रोया करते हैं।।
(3)
क्या तुमने सोचा है कभी,
माँ बेटी और बहिन जैसी,
हैं असहाय बेचारी अबला,
बेचा करतीं जो निज तन को,
है दुर्भाग्य देश का अपना,
लाखों रावण दुशासन हैं,
अब तो राम-कृष्ण भी ऐसे,
हर लें तन-मन और वसन को।।
(4)
क्या तुमने सोचा है कभी,
जो श्रृद्धा भाव की थी मूरत,
है विकृत रूप उस नारी का,
चर्चा है घर बाजारों में।
ये कैसा घोर अनर्थ आज,
हैं घृणित अंग-प्यार दर्शन,
लाचार और आनंदित सब,
उलझे चैनल अखवारों में।।
(5)
क्या तुमने सोचा है कभी,
हम पापी और अधर्मी हैं,
सहते हैं अर्थ-अनर्थ सभी,
हम मूक बधिर अंधे बन कर।
भूले हम धर्म कर्म को ही,
माहौल प्रदूशित किया स्वयं,
बस एक समर्थ है प्रभु तू ही,
कुछ कर ‘गाफिल’ का दुःख सुनकर।।
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