टूट गई है कमर सभी की, महंगाई की मार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
भाव दाल का साठ रूपैया।
कोई दाल अस्सी की भैया।।
सब्जी हो गई महंगी कितनी,
चटनी घिस ले मेरी मैया।।
महंगाई से पहले गायब, चीजें होंय बजार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
दूध हो गया महंगा कितना।
फिर भी दूध में पानी उतना।।
दुर्लभ दर्शन देशी घी के,
वो भी शुद्ध नहीं है मिलना।।
चीनी महंगी चाय गोल है, दीनों के परिवार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
नई नई फैलीं बीमारी।
दवा हो गईं महंगी सारी।।
कर्जा ले-ले कर इलाज कर,
वरना मरे मात सुत नारी।।
लूटें वैद्य मरीजों को नित, सेवा और सत्कार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
महंगी शिक्षा और पढ़ाई।
कुटिया नहीं महकने पाई।।
दीन पिता की अनपढ़ बेटी,
मुश्किल से जाती है ब्याही।।
सच्ची खुशहाली न मिलेगी, शिक्षा के व्यापार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
अच्छी सामयिक कविता..बधाई..
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