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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

वह आजादी पा न सकूँगा

मजदूरों की आजादी तो, केवल स्वप्न सुनहरी है।
और गरीबों की आजादी, लूली, लंगड़ी-बहरी है॥
आजादी की अन-गिन खुशियां, चाहे आज मनाये कोई।
लेकिन मैं तो,
गीत खुशी के गा न सकूँगा॥

जहाँ अधखिले फूल, धूल में खिलने से पहले मिल जाते।
जहाँ लोग नित फुटपाथों पर, जीवन के दिन-रात बिताते॥
अगर वहीं ऊँचे महलों में, सुरा-जाम छलकाये कोई।
लेकिन मैं तो,
मदिरा पीने जा न सकूँगा॥

भ्रष्ट कमाई की दौलत से, कोई बड़ा अमीर हो गया।
लेकिन आज दीन का जीवन, दुःखी दृगों का नीर हो गया॥
रोता देख अनुज को अग्रज, मन ही मन मुस्काये कोई।
लेकिन मैं तो,
ऐसा जीवन भा न सकूँगा॥
बडे़ लोग तो खा-पी गाकर, आजादी का पर्व मनाते ।
और दीन के दुःख दर्दों को वाक चतुरता से दफनाते॥
मरे हुओं की जै-जै करके, जिन्दों को दफनाये कोई|
लेकिन मैं तो,
वह आजादी पा न सकूँगा॥

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