जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या|
हिय पाप बसा मुख प्यार रहा,
तो ऐसे भी मिलने से क्या||
अन्तर घुल चुका दीवाली का,
बाहर फीका उजियाला है।
देखा-देखी तो जन-गन-मन,
है सुखी मगर मन काला है।।
मन तो रोता है जीवन भर,
सोचो क्षण भर हँसने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
रोते तो देखे बहुतेरे,
हँसते बिरले देखे हमने।
सुख मिला तो हम अनजान हुये,
दुःख देख लगे रोने-भगने।।
ऐसे नर भार बने भू पर,
कुछ कर न सकें जीने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
जिसका मन टूट गया हो वो,
समझो तन से भी टूट गया।
तन-मन जब टूट गया जिसका,
उसका जग-जीवन छूट गया।।
जो फूल महकता नहीं कभी,
उसके मिथ्या खिलने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना .....आभार
जवाब देंहटाएं