शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011
पूरे साल रहे!!!
गुरुवार, 29 दिसंबर 2011
सान्निध्य: नववर्ष तुम्हारा अभिनन्दन
रविवार, 25 दिसंबर 2011
नवगीत की पाठशाला: २२. लाएगा उपहार साल
सान्निध्य: फिर आएगा नया साल
सोमवार, 24 अक्टूबर 2011
सान्निध्य: प्रकाश पर्व
शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011
नवगीत की पाठशाला: २५. उत्सव गीत
गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011
सान्निध्य सेतु: शब्द दो तुम मैं लिखूँगा
सान्निध्य: विश्व दृष्टि दिवस
बुधवार, 28 सितंबर 2011
सान्निध्य सेतु: शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माँ दुर्गा
रविवार, 11 सितंबर 2011
सान्निध्य: गत एक वर्ष में राष्ट्रूभाषा हिंदी ने क्या खोया क्य...
शनिवार, 10 सितंबर 2011
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
तुम सृजन करो
वसुन्धरा को धानी चूनर भी पहनाऊँगा।
देखे होंगे स्वप्न यथार्थ में जीने का है समय,
ग्रामोत्थान और हरित क्रांति की अलख जगाऊँगा।।
बढ़ते क़दम शहर की ओर रोकूँगा जड़वत हो।
ग्राम्य विकास का युवकों में संज्ञान अनवरत हो।
नई नई तकनीक उन्न्त कृषि कक्षायें हों।
साधन संसाधन जाने की कार्यशालायें हों।
कहाँ कसर है ग्राम्य चेतना शिविर लगाऊँगा।।
गोबर गेस, सौर ऊर्जा का हो समुचित उपयोग।
साझा चूल्हा, साझा खेती पर हों नए प्रयोग।
पर्यावरण सुरक्षा, सघन वन, पशुधन संवर्द्धन हो।
पंचायत के निर्णय मान्य हों, न कोई भूखा जन हो।
श्रम का हो सम्मान मैं ऐसी हवा चलाऊँगा।।
कृषिप्रधान है देश कृषि पर ध्यान रहे हरदम।
वर्षा पर नों निर्भर जल संग्रहण हो न कम।
उन्नत बीज खाद मिले बाजार यहीं विकसित हों।
चौपाल सजें आधुनिक कृषि पर चर्चायें भी नित हों।
अभिनव ग्राम बनें मैं ऐसी जुगत लगाऊँगा।।
तुम सृजन करों------
मंगलवार, 6 सितंबर 2011
नवगीत की पाठशाला: २५. यह शहर
रविवार, 4 सितंबर 2011
2 ग़ज़लें
करम कर तू ख़ुदा को रहमान लगता है।
कोई नहीं तिरा मिरा जो मिहरबान लगता है।
यही पैग़ाम गीता में हदीस में है पाया,
ग़ुमराह किया हुआ वो इंसान लगता है।
आदमी-आदमी की फ़ितरत मे क्यूँ है फ़र्क,
सबब इसका सोहबत-ओ-खानपान लगता है।
तिरी नज़र में क्यूँ है अपने पराये का शक़,
इक भी नहीं शख़्स जो अनजान लगता है।
उसने सबको एक ही तो दिया था चेहरा,
चेहरे पे चेहरा डाले क्यों शैतान लगता है।
कौनसी ग़लती हुई, इसे क्या नहीं दिया,
ख़ुदा इसीलिए हैराँ औ परीशान लगता है।
उसकी दी नैमत है अहले ज़िन्दगी 'आकुल',
जाने क्यूँ कुछ लोगों को इहसान लगता है।
2
दरख़्त धूप को साये में ढाल देता है।
मुसाफ़िर को रुकने का ख़याल देता है।
पत्तों की ताल हवा के सुरों झूमती,
शाखों पे परिन्दा आशियाँ डाल देता है।
पुरबार में देखो उसकी आशिक़ी का जल्वा
सब कुछ लुटा के यक मिसाल देता है।
मौसिमे ख़िज़ाँ में उसका बेख़ौफ़ वज़ूद,
फ़स्ले बहार आने की सूरते हाल देता है।
इंसान बस इतना करे तो है काफ़ी,
इक क़लम जमीं पे गर पाल देता है।
ऐ दरख़्त तेरी उम्रदराज़ हो 'आकुल',
तेरे दम पे मौसिम सदियाँ निकाल देता है।
पुरबार-फलों से लदा पेड़,
मौसिमे ख़िज़ाँ- पतझड़ की ऋतु
फ़स्ले बहार- बसंत ऋतु, सूरते हाल- ख़बर
क़लम- पेड़ की डाल,पौधा उम्रदराज- चिरायु
शनिवार, 3 सितंबर 2011
'आकुल' को 'साहित्य श्री' सम्मानोपाधि#links
सान्निध्य सेतु: 'दृष्टिकोण' ने दूसरे वर्ष में प्रवेश किया। पाँचव...
यह दर्द उसने दिया है उसी से क्या कहता।
तमाम शहर में झूठों का राज़ था ‘अख्तर’,
मैं अपने ग़म क...
मंगलवार, 5 जुलाई 2011
रचनाकार: जितेन्द्र जौहर की काव्य समीक्षा : चार पंक्तियाँ, चौदह ग़लतियाँ
बुधवार, 22 जून 2011
आत्महत्या का अधिकार-
रविवार, 12 जून 2011
तानाशाही सत्ता की जय हो
भ्रष्टाचार और कालेधन पर अपना मुंह नही खोलूँगा
अरे, मुझको भी तो अपनी जान बहुत प्यारी है
सच लिखने की ताकत मेरी, सत्ता के आगे हारी है
तो भला मैं, क्यूँ सच बोल कर अपना शीष कटाऊ
अमानवीय सरकार को भला क्यूँ अपना दुश्मन बनाऊ
जो सत्ता सोये हुए लोगो पर लाठी बरसा सकती है
न्याय की प्यासी जनता को बूँद-बूँद तरसा सकती है
जिसने सत्याग्रह का अर्थ ही कभी ना जाना हो
लोकतंत्र में जनता की पुकार को कभी ना माना हो
जिसे दुनिया ने पूजा सदा, वो उसको ठग बतलाती है
आधी रात को लाठिया बरसा मन ही मन मुस्काती है
वो सत्ता भला कलम की ताकत को क्या जानेगी
भ्रष्टाचार से पीड़ित प्रजा के आंसू क्या पहचानेगी
सत्ता के धर्म-अधर्म को अपनी कलम से नही तोलूँगा
अब तो मैं भी सत्ता के विरुद्ध कभी कुछ नही बोलूँगा
आज चली है लाठिया, कल गोली भी चलवा सकते है
सच लिखने के अपराध में मुझे भी अन्दर करवा सकते है
तानाशाह हो चुकी सरकार अब प्रजातंत्र को भूल रही
भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार, सत्ता के मद में झूल रही
सिंहासन का राजा कोई, बागडोर किसी और के हाथ में
खरगोशों का शिकार कर रहे, सिंह-सियार दोनों साथ में
कसाब खा रहा बिरयानी, सत्याग्राही लाठिया है खा रहे
देश में आतंक फ़ैलाने वाले, लादेन जैसे सत्ता को भा रहे
सात समंदर पार, सत्ता के दलालों की भर रही है तिजोरिया
और एक योगगुरु को द्रोही बतलाकर कर रहे वो मुंहजोरिया
अब तो लगता है डर, कहीं ना कर दे मुझको भी बदनाम
मैं क्यूँ पडू इस झंझट में, करूँगा मैं सत्ता को सलाम
सिंहासन के फेंके सिक्कों पर, अब तो मैं भी डोलूँगा
अब तो मैं भी सत्ता के विरुद्ध कभी कुछ नही बोलूँगा
अपनी जेब भरने को, मैं दरबारों की जेबे टटोलूँगा
अपनी कडवा सच की कविताओं में झूठ की मिश्री घोलूँगा
अब तो मैं भी सत्ता के विरुद्ध कभी कुछ नही बोलूँगा
भ्रष्टाचार और कालेधन पर अपना मुंह नही खोलूँगा
सोमवार, 9 मई 2011
"अब भारत की बारी-"
(अभी हाल ही में अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया है, पूरे देश में जैसे एक ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, हमारे देश के समस्त न्यूज़ चैनल अमेरिका की इस जीत पर ख़ुशी के ढोल बजाने लगे. परन्तु मैं सोचता हूँ इस तरह ढोल बजाने का हमारा कोई मतलब नही है, क्योंकि हमारी जेलों में सैकड़ों आतंकवादी आज भी बंद है, पर हमारी सरकार उन्हें आज तक भी कोई सजा नही दिला सकी है, और अफज़ल जैसे आतंकी जिसे फाँसी की सजा भी मिल चुकी है, उसे आज भी जेल में मटन और बिरयानी परोसी जा रही है. जब हम अपनी जेलों में कैद आतंकियों को भी सजा नही दे पा रहे है, तो हमें एक लादेन के मरने पर इतनी ख़ुशी क्यों हो रही है? जिस दिन जेल में पड़े सभी आतंकवादियों को सजा मिलेगी, वो दिन हमारे ढोल बजाने का दिन होगा, और उस दिन शायद मैं भी खुशियों के ढोल बजाऊंगा.
मैं एक रचना प्रस्तुत करता हूँ, अगर आपके दिल तक मेरे एहसास पहुंचे तो मुझे अवश्य सूचित करे.)
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अब तो अमेरिका ने ओसामा को भी मार दिया
और पाकिस्तानी चेहरे से भी नकाब उतर दिया
तो तुम क्यों बैठे हो चुपचाप आतंकी कडवाहट को चख कर
अफज़ल की फाईल को राष्ट्रपति की तिजोरी में रख कर
अब तो तुम भी अफजल को फांसी देकर न्याय करो
उसको क्षमादान देकर न देश के साथ अन्याय करो
तुम कसाब को जेल में बिरयानी जो खिला रहे हो
उसकी सुरक्षा पर रूपया पानी की तरह जो बहा रहे है
ये नही है कोई बड़प्पन, बल्कि मुंह पर तमाचे है
लकड़ी के महल को दीमक खा जाने वाले ढांचे है
कल कोई फिर विमान अपहरण कर तुमको धमकाएगा
विमान की रिहाई के बदले में कसाब को मुक्त कराएगा
मत भूलो, पाकिस्तान ने भारत में आतंकी बीज बोये है
पिछले बीस सालों में हमने अस्सी हज़ार व्यक्ति खोये है
जवान बेटों की लाशें बूढ़े बापों के कन्धों ने भी ढोयी है
ना जाने कितने सुहागनों की आँखें गम में रोई है
उनके आंसुओं को भूलकर, तुम क्यों ढोल बजा रहे हो
एक ओसामा के मरने पर इतनी ख़ुशी क्यों मना रहे हो
यदि तुम इन आतंकी दरिंदों पर लगाम नहीं कस पायोगे
तो भारत की गलियों में एक नही दस-दस ओसामा पाओगे
तब तुम याद करोगे अपनी पिछली सब भूलों को
कैसे पाला-पोषा था, तुमने काँटें लदे बबूलों को
अब भी समय है जागो, दुष्ट पापियों का संहार लिखो
राक्षसों के खून को प्यासी माँ भवानी की तलवार दिखो
क्षमादान देकर मत पृथ्वीराज वाली भूल को दोहराओ
आतंक का नाश कर वीर शिवाजी के वंशज कहलाओ
कह दो सागर के लहरों से, कह दो क्रूर हवाओं को
आँख उठा कर भी न देख ले कोई भारत की सीमाओं को
जागो मनमोहन पगड़ी सभाल कर जट सरदार बनो
लेकर कृपाण आतंकी दुष्ट हवाओं पर प्रहार बनो
हिजबुल लश्कर के आगे अपनी पूंछ हिलाना बंद करो
आस्तीन के जहरीले नागों को दूध पिलाना बंद करो
फिर ना संसद पर हमला हो, फिर ताज ना घायल हो
ट्रेन के बम धमाके में, फिर ना रोती कोई पायल हो
फिर ना कोई अपहरण कर आतंकियों को छुड़ाने की मांग आएगी
गर जेलों में बंधक आतंकियों की गर्दन फाँसी पर टांगी जाएगी
मत रहना इस भूल में, अमेरिका तुम्हारे साथ होगा
मिटने आतंकी अंधियारे को, उसका भी कोई हाथ होगा
किसने पोंछा है पसीना, आक्रोश में दहकते अंगारों का
शेर अकेला ही शिकार किया करता है सियारों का
तो तुम एक बार पुराने असहाय दुर्बल कानूनों को झटका दो
अफज़ल, कसाब समेत सभी आतंकियों को शूली पर लटका दो
और तुम सेना से कह दो, माँ काली का रौद्र रूप धरे
जहाँ मिले जो आतंकी, उसकी गर्दन धड से अलग करे
तो लाहौर, कराची, रावलपिंडी तक सेना को बढ़ जाने दो
सीमा पार आतंकी अड्डों पर रणचंडी को चढ़ जाने दो
दिखला दो एक बार दुष्ट पडौसी को उसकी औकात
काट डालो जिह्वा उसकी गर करे वो कश्मीर की बात
ओसामा की मौत पर भारत में जो मातम मना रहे है
और ओसामा-बिन-लादेन को अपना सुपर हीरो बना रहे है
उनको भी तुम एक बार उनकी औकातें दिखला दो
राष्ट्रद्रोह की कोशिशों का परिणाम उनको बतला दो
फिर देखो भारत पर कोई आतंकी हमला कैसे हो सकता है
और भारत की पवन भूमि पर कोई विष बीज कैसे बो सकता है
खात्मा कर आतंक का जन-जन में खुशियों के दीप जलाओ
और फिर पूरी दुनिया में अपनी जीत के तुम ढोल बजाओ
-विभोर गुप्ता (मोदीनगर)
09319308534
सोमवार, 2 मई 2011
सपने लिखते नयन पॄष्ठ पर
सपने लिखते नयन पॄष्ठ पर
नई स्याहियां नया कथानक, बातें पर जानी पहचानी
नदिया का तट, अलसाया मन और सघन तरुवर की छाया
जिसके नीचे रखा गोद में अधलेटे से प्रियतम का सर
राह ढूँढ़ती घने चिकुर के वन में उलझी हुई उंगलियां
और छेड़तीं तट पर लहरें जलतरंग का मनमोहक स्वर
और प्यार की चूनरिया पर गोटों में रँग रही निशानी
भीग ओस में बातें करती हुई गंध से एक चमेली
सहसा ही यौवन पाती सी चंचल मधुपों की फ़गुनाहट
नटखट एक हवा का झोंका, आ करता आरक्त कली का
मुख जड़ चुम्बन, सहसा बढ़ती हुई अजनबी सी शरमाहट
और मदन के पुष्पित शर से बिंधी आस कोई दीवानी
मांझी के गीतों की सरगम को अपने उर से लिपटाकर
तारों की छाया को ओढ़े एक नाव हिचकोले खाती
लिखे चाँदनी ने लहरों को, प्रेमपत्र में लिखी इबारत
को होकर विभोर धीमे से मधुरिम स्वर में पढ़ती गाती
सुधि वह एक, दिशाओं से है बाँट रही उनकी वीरानी
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
--डा श्याम गुप्त...के दो पद ...
कन्हैया उझकि-उझकि निरखै ।
स्वर्ण खचित पलना,चित चितवत,केहि विधि प्रिय दरसै ।
जंह पौढ़ी वृषभानु लली , प्रभु दरसन कौं तरसै ।
पलक -पाँवरे मुंदे सखी के , नैन -कमल थरकैं ।
कलिका सम्पुट बंध्यो भ्रमर ज्यों ,फर फर फर फरकै ।
तीन लोक दरसन को तरसे, सो दरसन तरसै ।
ये तो नैना बंद किये क्यों , कान्हा बैननि परखै ।
अचरज एक भयो ताही छिन , बरसानौ सरसै ।
खोली दिए दृग , भानु-लली , मिलि नैन -नैन हरसें ।
दृष्टि हीन माया ,लखि दृष्टा , दृष्टि खोलि निरखै ।
बिनु दृष्टा के दर्श ' श्याम' कब जगत दीठि बरसै ॥
को तुम कौन कहाँ ते आई ।
पहली बेरि मिली हो गोरी ,का ब्रज कबहूँ न आई ।
बरसानो है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई ।
सुनी कथा दधि -माखन चोरी , गोपिन संग ढिठाई ।
हिलि-मिलि चलि दधि-माखन खैयें, तुमरो कछु न चुराई।
मन ही मन मुसुकाय किशोरी, कान्हा की चतुराई ।
चंचल चपल चतुर बतियाँ सुनि राधा मन भरमाई ।
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली, भूलि गयी ठकुराई ।
हरि-हरि प्रिया, मनुज लीला लखि,सुर नर मुनि हरसाई ॥
मंगलवार, 15 मार्च 2011
"काव्याकाश" के बारे में जानें
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
महंगाई की मार
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
भाव दाल का साठ रूपैया।
कोई दाल अस्सी की भैया।।
सब्जी हो गई महंगी कितनी,
चटनी घिस ले मेरी मैया।।
महंगाई से पहले गायब, चीजें होंय बजार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
दूध हो गया महंगा कितना।
फिर भी दूध में पानी उतना।।
दुर्लभ दर्शन देशी घी के,
वो भी शुद्ध नहीं है मिलना।।
चीनी महंगी चाय गोल है, दीनों के परिवार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
नई नई फैलीं बीमारी।
दवा हो गईं महंगी सारी।।
कर्जा ले-ले कर इलाज कर,
वरना मरे मात सुत नारी।।
लूटें वैद्य मरीजों को नित, सेवा और सत्कार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
महंगी शिक्षा और पढ़ाई।
कुटिया नहीं महकने पाई।।
दीन पिता की अनपढ़ बेटी,
मुश्किल से जाती है ब्याही।।
सच्ची खुशहाली न मिलेगी, शिक्षा के व्यापार से।
जन मानस लाचार दुःखी है, हावी भ्रष्टाचार से।।
कलयुग में किस्मत
राधा-सीता वृद्ध हो गई, झाडू-पौंछा करते-करते।।
नाम श्याम है सूरत गोरी,
लेकिन दिल के काले।
मुरलीधर है नाम मगर-
हैं पान बेचने वाले।।
मिले वनों में हमें राम जी, भेड़ चराते विचरण करते।
कलयुग में किस्मत के हमने, देखे अद्भुत रंग बिखरते।।
घास खोदती मिली केकई,
भीख मांगते हीरा-पन्ना।
रूपचंद की काली सूरत,
धनीराम जी बेचें गन्ना।।
राम-कृष्ण हो गये लफंगे, बेशर्माई से नहीं डरते।
कलयुग में किस्मत के हमने, देखे अद्भुत रंग बिखरते।।
कोठे पर बैठी सावित्री,
बेच रही है अपने तन को।
हरीशचंद्र नित झूठ बोल कर,
कमा रहे हैं खोटे धन को।।
नव यौवना बहाये आंसू, बीच बजरिया लुटते-पिटते।
कलयुग में किस्मत के हमने, देखे अद्भुत रंग बिखरते।।
मौसम लाया रंग बसंती
तन-मन हुआ बसंती बसका, अरू परिधान बसंती है।।
फूली-फली खेत में सरसों,
मंहकी गंध बसंती पवन में।
चिड़ियां उड़-उड़ लगी चहकने,
कोयलिया कूके बागन में।।
खेतों का रंग देख बसंती, हुआ किसान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
ओढ़ चुनरिया चली बसंती,
गोरी की हुई चाल बसंती।
आओगे कब पिया गांव को,
फोन से पूछे हाल बसंती।।
सुन गोरी के बैन बसंती, फौज-जवान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
प्यार का रंग बसंती ऐसा,
है सबकी मुस्कान बसंती।
आन बसंती शान बसंती,
और हुआ ईमान बसंती।।
रंगा बसंती रंग में जीवन, हर पहिचान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
ध्यान बसंती, ज्ञान बसंती,
मान और अरमान बसंती।
पाया जब सम्मान बसंती,
हिय जागा अभिमान बसंती।।
राम-कृष्ण, गौतम, नानक का, देश महान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
यू0 पी0, एम0 पी0, आंध्र, हिमाचल,
दिल्ली, राजस्थान बसंती।
गांव बसंती, शहर बसंती,
धरा और आसमान बसंती।।
केरल से कश्मीर तलक, ये हिन्दुस्तान बसंती है।
मौसम लाया रंग बसंती, हर इंसान बसंती है।।
वह आजादी पा न सकूँगा
और गरीबों की आजादी, लूली, लंगड़ी-बहरी है॥
आजादी की अन-गिन खुशियां, चाहे आज मनाये कोई।
लेकिन मैं तो,
गीत खुशी के गा न सकूँगा॥
जहाँ अधखिले फूल, धूल में खिलने से पहले मिल जाते।
जहाँ लोग नित फुटपाथों पर, जीवन के दिन-रात बिताते॥
अगर वहीं ऊँचे महलों में, सुरा-जाम छलकाये कोई।
लेकिन मैं तो,
मदिरा पीने जा न सकूँगा॥
भ्रष्ट कमाई की दौलत से, कोई बड़ा अमीर हो गया।
लेकिन आज दीन का जीवन, दुःखी दृगों का नीर हो गया॥
रोता देख अनुज को अग्रज, मन ही मन मुस्काये कोई।
लेकिन मैं तो,
ऐसा जीवन भा न सकूँगा॥
बडे़ लोग तो खा-पी गाकर, आजादी का पर्व मनाते ।
और दीन के दुःख दर्दों को वाक चतुरता से दफनाते॥
मरे हुओं की जै-जै करके, जिन्दों को दफनाये कोई|
लेकिन मैं तो,
वह आजादी पा न सकूँगा॥
मन का दीपक
तो कोटि दीप जलने से क्या|
हिय पाप बसा मुख प्यार रहा,
तो ऐसे भी मिलने से क्या||
अन्तर घुल चुका दीवाली का,
बाहर फीका उजियाला है।
देखा-देखी तो जन-गन-मन,
है सुखी मगर मन काला है।।
मन तो रोता है जीवन भर,
सोचो क्षण भर हँसने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
रोते तो देखे बहुतेरे,
हँसते बिरले देखे हमने।
सुख मिला तो हम अनजान हुये,
दुःख देख लगे रोने-भगने।।
ऐसे नर भार बने भू पर,
कुछ कर न सकें जीने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
जिसका मन टूट गया हो वो,
समझो तन से भी टूट गया।
तन-मन जब टूट गया जिसका,
उसका जग-जीवन छूट गया।।
जो फूल महकता नहीं कभी,
उसके मिथ्या खिलने से क्या|
जब मन का दीपक जला नहीं,
तो कोटि दीप जलने से क्या||
क्या तुमने सोचा है कभी
क्या तुमने सोचा है कभी,
इस मिट्टी में जन्में औ’ पले,
इंसान हैं ऐसे भी लाखों,
जो भूखे ही सो जाते हैं।
शीत लहर में भी तरू नीचे,
फुटपाथों पर पड़े-पड़े,
भाग्य विधा ही समझ, जिन्दगी-
के दिन रात बिताते हैं।।
(2)
क्या तुमने सोचा है कभी,
अपने ही बच्चे जैसे वो,
भीख मांगते, घर-होटल में-
जे बर्तन धोया करते हैं।
मजबूरी में पढ़ने लिखने,
और खेलने के मृदु क्षण भी,
दुर्व्यसनों में पड़कर खोकर,
जीवन भर रोया करते हैं।।
(3)
क्या तुमने सोचा है कभी,
माँ बेटी और बहिन जैसी,
हैं असहाय बेचारी अबला,
बेचा करतीं जो निज तन को,
है दुर्भाग्य देश का अपना,
लाखों रावण दुशासन हैं,
अब तो राम-कृष्ण भी ऐसे,
हर लें तन-मन और वसन को।।
(4)
क्या तुमने सोचा है कभी,
जो श्रृद्धा भाव की थी मूरत,
है विकृत रूप उस नारी का,
चर्चा है घर बाजारों में।
ये कैसा घोर अनर्थ आज,
हैं घृणित अंग-प्यार दर्शन,
लाचार और आनंदित सब,
उलझे चैनल अखवारों में।।
(5)
क्या तुमने सोचा है कभी,
हम पापी और अधर्मी हैं,
सहते हैं अर्थ-अनर्थ सभी,
हम मूक बधिर अंधे बन कर।
भूले हम धर्म कर्म को ही,
माहौल प्रदूशित किया स्वयं,
बस एक समर्थ है प्रभु तू ही,
कुछ कर ‘गाफिल’ का दुःख सुनकर।।
अंतर्व्यथा
बाहर है मृत्यु का तांडव।
कौरव का गौरव विकसित है,
कुंठित हैं बेचारे पांडव।।
गीता के उपदेश सिसकते,
बंसी बजती नहीं श्याम की।
धूमिल है संस्कृति देश की,
मर्यादा रो रही राम की ।।
कितनी सीताओं के निश दिन,
होते हैं अपहरण यहाँ।
नहीं सुनिश्चित विजय राम की,
रावण का अब मरण कहाँ।।
आज कुँआरी बाला गर्भित,
हुआ देश का चरित पतन।
लाज द्रोपदी की न बचेगी,
हर कोई है दुशासन।।
मंदिर मस्जिद गुरूद्वारों में,
आना-जाना नाम का है।
हाला प्याला औ’ सुरबाला,
मतलब यही दाम का है।।
झोंपड़ियों से महलों तक,
घनघोर अँधेरा फैला है।
कुँठित हैं सब ज्ञान रश्मियां,
सूरज भी मटमैला है।।
आज जरूरत सारे जग को,
सच की राह दिखाने की।
ऊपर वाले कर कुछ ऐसा,
आये समझ जमाने की।।
जग-जननी नारी
नमन तुम्हें है बारंबार।
नाम काम सब धन्य तुम्हारे,
नग्न प्रदर्शन को धिक्कार।।
वंदनीय ओ रूप स्वरूपा,
विकृत हुआ क्यों तेरा चेहरा।
चल कर देखो जरा सुपथ पर,
जीवन होगा बड़ा सुनहरा।।
आज किसी भी नारी को,
अबला कहना है नादानी।
नारी है अब सबला उसकी,
शक्ति सबने पहिचानी।।
हिन्द देश का नारी ने,
दुनिया में मान बढ़ाया है।
नारी को सम्मान सदा दो,
सब उसकी ही माया है।।
नारी माँ है नारी बेटी,
बहिन और महतारी वो।
नारी सबकी रही चहेती,
नर से ज्यादा भारी वो।।
नारी जग जननी है, ये सच-
कैसे तुम झुठलाओगे।
नारी को दुःख देकर मित्रो,
सुखी नहीं रह पाओगे।।
होली के रंग
भौजी और देवर का, पैगाम रंगीला है।।
बृजधाम में होरी के, रंगों की छटा न्यारी;
राधा भी रंगी रंग में, घनश्याम रंगीला है।।
फागुन का महीना है, रंगीला है मौसम।
दिन रात रंगीले हैं, रंगों में है सरगम।।
रंगों में रंगी राधा, श्याम रंगे रंग में;
देवर और भौजी के, है प्यार के रंग में दम।।
होरी में दिवरिया पै, भौजी रंग डारि गई।
सूरत कूँ रंग औ‘ गुलाल सौं बिगारि गई।।
पीछे वारी होली की, कसकहू निकारि गई;
नैनन सौं बैनन कौ काम लै दुलारि गई।।
होरी में भौजी नै ऐसौ रंग डारयौ है।
तन कूँ बिगारयो जानै मन कूँ बिगारयो है।।
गालन गुलाल मलि, प्यार सौं दुलारयो है;
नैनन के बार सौं, बार बार मारयो है।।
गाफिल की सीख
जीवन यौवन चार दिन, नश्वर ये संसार ।
“गाफिल” हरि से हेत कर, गर चाहे उद्धार।।
छोड़ो धन की लालसा, रूके न धन इक ठौर।
तुझ पर है धन आज जो, कल्ल कहीं वो और।।
माया मन रूकते नहीं, चलते ये दिनरात।
तज माया को मन लगा, कुछ पल हरि के साथ।।
तन को धो उजला करें, दिन में सौ-सौ बार।
“गाफिल” मन को धो जरा, जामें सकल विकार।।
धोने से तन वसन को, चैन मिले इक बार ।
मन को धो कर देख ले, जीवन भर सुख यार।।
कुदरत करती काम निज, तू भी कर निज काम।
पर ईश्वर को भूल मत, जिसका जगत गुलाम।।
चोर भिखारी शाह या, बुरा भला शैतान।
सबके दाता हैं प्रभू, कर उनका गुणगान।।
दुःख के बदले दुःख मिले , सुख के बदले सुक्ख।
“गाफिल” अच्छे काम कर, मिट जायें सब दुक्ख।।
शिष्ट भक्त औ‘ संत जन, दुनिया में हैं चंद।
जिनके दर्शन मात्र से, मिले परम आनंद।।
जाते हैं सब स्वर्ग में, ‘गाफिल‘ मर कर लोग।
स्वीकारे कोई नहीं, नरकवास का योग।।
मन में लो संकल्प तुम, चलो सत्य की राह।
पूरी होगी एक दिन, जीवन की हर चाह।।
माया सुख-दुःख दारिणी, मोह विपति का जाल।
मद की अंधी चाल है, ‘गाफिल’ करो खयाल।।